1947 का वर्ष समाप्त होने में दो दिन बाकी थे। 'पद्म-विभूषण' से सम्मानित भारत के एकमात्र पुलिस अधिकारी श्री के.एफ.रुस्तमजी ने सारंगढ़ के गिरिविलास पैलेस में रहते हुए अपनी डायरी (बाद में पुस्तक के रूप में प्रकाशित) में लिखा कि सी.पी. एन्ड बरार राज्य में स्थानांतरित हो कर उत्तर-पूर्वी कोने में जिस ज़िले (रायगढ़) के एस.पी. पद का चार्ज लेने जाते हुए वे यहां तक पहुंचे थे, वह ज़िला तब तक भारतीय गणराज्य के नक्शे में ही नहीं था।
दूसरी बात जो श्री रुस्तमजी ने लिखी : 'वे एक ऐसे राजा के मेहमान थे जिनके लिए एक राजा के रूप में ये उनके जीवन के अंतिम दो दिन थे। रूस्तमजी ने नोट किया कि राजा नरेशचन्द्र सिंह जी को राज्य जाता देख किसी किस्म का दुख या मलाल नहीं था। बल्कि अपने राज्य और यहां के लोगों के बेहतर भविष्य के लिए अपने सपनों के पूरा होने की संभावनाओं को लेकर वे बेहद आशान्वित और उत्साहित थे।
विलय के समय अनेक राज्यों/रियासतों के पास ऐसा बहुत कुछ था जो आज एक नया ज़िला बनाने के लिए आवश्यक समझा जाता है। लेकिन सारंगढ़ की तरह अनेक राज्यों को ज़िला मुख्यालय नहीं बनाया गया। सरकार के पास संसाधनों की कमी के अलावा मुख्य कारण था इन स्थानों में जहां अनेक खूबियां मौज़ूद थीं वहीं अनेक कमियां भी थीं।
सारंगढ़ को ही लें। खूबियों के रूप में यहां हाईकोर्ट के अलावा दीवान (अंग्रेज़ों के ज़िला मजिस्ट्रेट के समकक्ष) के रूप में एक प्रशासनिक मुखिया, शहर कोतवाल तथा थानों के साथ पुलिस बल, जेल, अस्पताल, म्युनिसिपल कमेटी, ट्रेज़री, विद्युत उत्पादन और वितरण की अपनी व्यवस्था, शिक्षा और वन जैसे सभी विभागों के अमले, सभी कुछ था। यहां तक कि उच्च मानकों के साथ काम करती हवाई पट्टी और गाॅल्फ कोर्स भी था।
जो सबसे बड़ी कमी इन सब खूबियों पर हावी हो गयी थी : वह थी आवागमन के साधनों का अभाव।
सारंगढ़ में रेल नहीं थी। बम्बई और कलकत्ते के बीच रेल लाईन अंग्रेज़ों की बंगाल-नागपुर-रेल्वे कम्पनी ने उन्नीसवीं सदी में बिछाई थी। अंग्रेज़ों के रेल नक्शे में रायगढ़ था सो जुड़ गया, सारंगढ़ दूर था सो छूट गया। 1948 में रायगढ़ में रेल लाईन का होना उसे ज़िला मुख्यालय बनाने के पक्ष में बड़ा कारण बना था। पुलविहीन विशाल नदियों से घिरे सारंगढ़ की सड़कों की उपयोगिता सीमित थी। रायगढ़ के अलावा राजनैतिक मुख्यालय रायपुर और संभागीय मुख्यालय बिलासपुर भी पहुंच विहीन थे।
सारंगढ़ में अलबत्ता एक हवाई पट्टी थी। दूसरे विश्वयुद्ध में अमरीकी बमवर्षक विमान यहां ईंधन भरने उतरा करते थे। विशेषज्ञों के अनुसार तकनीकि पैमानों पर यह देश की सर्वोत्तम हवाई पट्टियों में से एक थी। किन्तु किसी नियमित व्यावसायिक सेवा के अभाव में यहां वही आ जा सकता था जिसके पास अपना स्वयं का विमान हो।
आज एक खाते-पीते (या खाये-अघाये) युवक का सपना यदि नयी कार खरीदना है तो कतई आश्चर्य की बात नहीं। संभावना यही है कि इस व्यक्ति के दादा की प्राथमिकता दोनों वक्त की दाल-रोटी और बच्चों की शिक्षा का जुगाड़ करने की और पिता की परिवार के लिए घर बनाने की रही होगी।
आज़ादी के शुरुआती दशकों में भारत की स्थिति दादाजी जैसी ही थी। आंखों में सपने अधिक थे, जेब में पैसे कम। दादाजी का भारत गरीब था कहना काफ़ी नहीं होगा। 1943 के बंगाल के अकाल में भुखमरी से अनुमानित तीस लाख मौते हुई थीं। उस अकाल की न तो यादें धुंधली हुई थीं न असर। ऐसी स्थिति में मितव्ययता ज़रूरी थी। खर्च की प्राथमिकताएं तय करना और भी ज़रूरी था।
प्राथमिकताओं के तब के माॅडल को सारंगढ़ के उदाहरण से समझा जा सकता है। विलय के बाद राजा नरेशचन्द्र सिंह जी मध्यप्रदेश केबिनेट में मंत्री बन एक शक्तिशाली राजनेता के रूप में उभरे थे और इलाके के बारे में अकेले निर्णय लेने की स्थिति में थे। उन्होने तब ज़िला मुख्यालय की अपेक्षा इलाके के विकास को प्राथमिकता दी। "विकास" को परिभाषित करने के लिए कोई पुराना माॅडल सामने नहीं था। स्वयं का विवेक ही सहायक था। उन्होने आवागमन की अधोसंरचना और कृषि पर निवेश कर स्थानीय अर्थतंत्र को मजबूती देने और लोगों का जीवन स्तर बेहतर बनाने की जुगत को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। वैसे भी सारी इच्छाएं पूरी हो जाएं यह स्थिति राज्य या देश की नहीं थी।
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2 अक्टूबर 1954 का दिन छत्तीसगढ और सारंगढ़ के सामाजिक और आर्थिक इतिहास में मील का पत्थर है। इस दिन रायपुर और सारंगढ़ के बीच आरंग नामक स्थान में महानदी पर बने मध्यप्रदेश के तब तक के सबसे लम्बे पुल का उद्घाटन हुआ था। नाम दिया गया था "गांधी पुल"। मुख्य अतिथि थे तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री (और सवा दो साल बाद बने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री) श्री कैलाश नाथ काटजू।
इस पुल पर निवेश करने का निर्णय बहुत सोच समझ कर लिया गया था। भारत के इस भूभाग के लिए यह बहुत बड़ी और दूरगामी प्रभाव डालने वाली उपलब्धि थी। इस एक पुल ने छत्तीसगढ (पूर्वी मप्र) के लिये उड़ीसा और कलकत्ता समेत पूर्वी भारत के साथ आवागमन संभव कर यहां व्यापार और समृद्धि के द्वार चौतरफा खोल दिए थे। तब तक रायपुर राजनैतिक रूप से महत्वपूर्ण किन्तु सामाजिक-आर्थिक रूप से एक कस्बानुमा स्थान था। रायपुर को एक बड़े शहर का रूप देने और छत्तीसगढ में आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने में यह पुल सबसे बड़ा फैक्टर बना।
दो वर्षों में बने इस पुल को आकार देने में जिन दो लोगों का महत्वपूर्ण रोल था उनमें पहले थे मध्यप्रदेश के रायपुर निवासी मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल। दूसरे थे उनके मंत्रिमंडल में पी.डब्लू.डी. विभाग के मंत्री सारंगढ़ के राजा नरेशचन्द्र सिंह जिनके लिए खुशी का एक स्वाभाविक अतिरिक्त कारण यह था कि सारंगढ़ पहली बार बारह-मासी सड़क के द्वारा बाहरी दुनिया से जुड़ गया था।
आरंग वाला पुल सारंगढ़ के लिये पर्याप्त नहीं था। साठ के दशक में राजा साहब सारंगढ़ को रायगढ़ से जोड़ने वाले पुल की शासकीय स्वीकृति लेने में सफल हो गये। किन्तु उन्हे इस बात का दुख था कि दो वर्ष बीतने और स्वयं मंत्रीमंडल के प्रभावशाली सदस्य होने के बावज़ूद वे पुल का निर्माण शुरू नहीं करवा पाये थे।
पूछने पर उन्हे हर बार एक सा जवाब मिलता : पी.डब्लू.डी. और ठेकेदार कम्पनी के बीच कुछ विवाद हैं और पत्राचार चल रहा है। यह पुल आरंग वाले से अधिक लम्बा होने जा रहा था इसलिए तकनीक के साथ साथ स्थान चयन को ले कर भी विवाद थे। महानदी में बीचों बीच एक बड़ा टापू है। उस टापू की उपयोगिता पर जितना विश्वास राजा साहब को था उतना दूसरों को नहीं हो पाया था। थक कर एक दिन उन्होने पी.डब्लू.डी. विभाग और निर्माण करने वाली गैमन इंडिया कम्पनी के उच्चाधिकारियों को सारी फ़ाईलों के साथ सारंगढ़ निमंत्रित किया। टापू पर उन्होने टेन्ट लगवाया। चाय नाश्ते और नावों की व्यवस्था भी थी। राजा साहब अपनी बेटी कमला देवी के साथ सभी मेहमानों को लेकर वहां पहुंचे। बेटी के साथ वे स्वयं नाव पर बैठे रहे। सारे अतिथि जब उतर गये तब उन्होने घोषणा की - "मैं वापस जा रहा हूं। आप लोग साथ बैठकर जी भर कर चर्चा कीजिए। जब सारे विवाद सुलझ जाएं तो रूमाल से इशारा कर दीजिएगा। मैं नाव भेज दूंगा।" राजा साहब का सामाजिक राजनैतिक रुतबा और कद इतना बड़ा था कि अधिकारियों के पास उनकी इस अजीबोगरीब घोषणा पर खेल भावना का प्रदर्शन करते हुए मुस्कराते रहने का विकल्प नहीं था। वहीं सहमति बनी कि नक्शे में बदलाव कर, दोनों किनारों के बीच स्थित उसी टापू की चट्टानों का इस्तेमाल किया जाएगा। ऊपर से एक दिखते लम्बे पुल का वजन दरअसल दो हिस्सों में बंटा होगा। इसके बाद निर्माण में गति तो आनी ही थी। संयोग रहा कि जब यह पुल पूरा हो कर 1972 में उद्घाटित हुआ तब तक श्रीमती कमला देवी राज्य की पी.डब्लू.डी. मंत्री बन चुकी थीं। यह पुल आज भी काम कर रहा है।
आवागमन के साथ साथ कृषि विकास भी प्राथमिकता थी।
1954 में भारत के राष्ट्रपति डाॅ. राजेंद्र प्रसाद राजा साहब के निमंत्रण पर दो दिवसीय दौरे पर सारंगढ़ आये। राजा साहब की इच्छा थी सारंगढ़ में एक कृषि का काॅलेज खुले। उन्हे बताया गया कि चूंकि दूर दूर तक कहीं कृषि स्कूल नहीं है इसलिए महाविद्यालय के लिये छात्र नहीं मिलेंगे। दूसरी समस्या थी कि कृषि विद्यालय हो चाहे महाविद्यालय, दोनों में छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए खेतों की आवश्यकता पड़ती है। सारंगढ़ में राजा साहब ने इसके लिए अपनी तीन सौ एकड़ भूमि दान की और राष्ट्रपति के हाथों कृषि विद्यालय का शिलान्यास हुआ। उसी समय साथ में आये मुख्यमंत्री प॔. रविशंकर शुक्ल ने प्रस्ताव को विस्तार दिया। उन्होने रायपुर के पास लाभांडी नामक गांव की अपनी कृषि भूमि दान करने का निर्णय लिया। वहां कृषि महाविद्यालय बना जिसने आगे चलकर वर्तमान इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय का रूप लिया। (सारंगढ़ में राष्ट्रपति के हाथों शुरू कृषि विद्यालय और साथ में दान में मिले खेतों का क्या हुआ यह अलग कहानी है)।
1960 के दशक में ही सारंगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि क्रांति के रूप में तीन बड़ी सिंचाई योजनाएं आयीं। पहला बड़ा बांध था किंकारी। घने जंगलों के बीच स्वीकृति के बाद इसका भी काम शुरू नहीं हो पाया था। यहां देरी का नया कारण था। उस युग में मशीनें कम थीं। बड़ी संख्या में मजदूरों के बिना निर्माण संभव नहीं था और मजदूर उपलब्ध नहीं थे। इलाके के आदिवासी अपना घर छोड़कर कहीं जाने के आदी नहीं थे। लालच के प्रचलित तरीके काम नहीं आये थे। हाट में ज्यादातर अदला-बदली में सामान मिल जाता था। सो पैसे में इतनी ताकत नहीं थी कि जीवन शैली बदल सके। शराब वे अपनी आवश्यकतानुसार स्वयं बनाने में सक्षम थे। तब राजा नरेशचन्द्र जी ने प्रलोभन का नया तरीका इज़ाद किया। आदिवासी कल्याण के अपने मंत्रालय से सिनेमा प्रोजेक्टर और डीज़ल जेनेरेटर के साथ ऑपरेटरों की टीम को बांध की साईट पर पदस्थ करवा कर स्वयं अपने लिए भी तम्बू तनवा दिया। दिन भर काम चलता और रात में मजदूर और उनके परिवार सिनेमा देखते। फिल्में सीमित थीं। साल भर वही दो-चार फ़िल्में दोहराई जातीं रहीं और हर बार दर्शक मंत्रमुग्ध हो कर, देखते रहे। जागृति और मुन्ना जैसी फिल्में उन आदिवासियों ने इतनी बार देखीं जितनी बाद में लोगों ने मदर इंडिया, मुगलेआज़म और शोले भी नहीं देखी होंगी। जब तक बांध पूरा नहीं बना न राजा साहब का टेन्ट उखड़ा न साईट से मजदूर टस से मस हुए। यही नुस्खा उन्होने दूसरे बड़े बांध केड़ार और फिर तीसरे पुटका बांध और उनकी नहरों के लिए भी आजमाया। 1956 में बने हीराकुड बांध के कारण सारंगढ़ से लगे हिस्से में महानदी के जलस्तर को ठहराव और ऊंचाई प्राप्त हुई, भू-जल का स्तर बढ़ा, जिसने बड़े इलाके में लिफ्ट इरिगेशन संभव बनाया।
अस्सी का दशक आते तक क्षेत्र की कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था मजबूत हुई और समृद्धि बढ़ी। इलाका मध्यप्रदेश में मूंगफली उत्पादन में टाॅप करने लगा। धान का उत्पादन तीन से चार गुना बढ़ गया। धान से चावल बनाने की दर्जनों मिलें खुल गयीं। यहां के गन्ने के बूते पड़ोस के राज्य उड़ीसा के बरगढ़ में शक्कर कारखाना चल निकला। कच्चे मकान पक्के होने लगे। एक पटाव (मंज़िल) के दो पटाव होने लगे। कृषि उपकरणों, ट्रैक्टरों और मोटरसाइकिलों की संख्या बढ़ने लगी। बाहर जाकर पोस्ट ग्रैजुएट और डाॅक्टरेट करने वाले किसान पुत्र बढ़ने लगे।
1980 का दशक आते तक देश दादाजी से आगे बढ़कर पिताजी के काल में पहुंच गया। बढ़ते कृषि उत्पादन, व्यापार और आवागमन के साधनों का असर समाज में दिखने लगा।
किंकारी बांध से 1972 में जब नहरों में पहला पानी छोड़ा गया तब तक गांवों में दो-चार व्यक्ति ही होते थे जिनके पास कभी-कभार गांव से बाहर जाते समय पहनने के लिए सफेद धोती हुआ करती थी। (ज्यादातर राजनांदगांव के बंगाल नागपुर काॅटन मिल की बाघ-छाप धोती पहनते थे)। और साथ में गांव में बनी चमड़े की मोटी चप्पलें। बाकी का गुज़ारा हरे या नीले रंग के उस सूती कपड़े से होता था जिसे पुरुष लपेट ले तो धोती और महिला लपेटे तो लुगड़ा कहा जाता था। 1977 में लोकसभा क्षेत्र को सारंगढ़ नाम दे दिया गया था। 1980 के दशक शुरू होते तक एक जागरूक पहल पर महाविद्यालय शुरू हो गया। सूरत आदि शहरों से आने वाले सिन्थेटिक कपड़ों से दुकानें सजने लगीं। 1988 से किराये के 'कमाण्डर' वाहनों में सपरिवार यात्राएं शुरू हुईं। महानदी पर बिलासपुर के लिए भी पुल बनना शुरू हो गया।
यही वह काल था जब सारंगढ़ को एक ज़िला बनाये जाने की संभावना एक प्रबल जन आकांक्षा का रूप लेने लगी।
1987 में राजा साहब का निधन हो चुका था और 1996 के बाद उनकी बेटियां लोकसभा और विधानसभा से बाहर आ चुकी थीं। तब तक ज़िले का सपना देखने वालों की संख्या बढ़ने लगी थी। दादाजी का पोता बड़ा हो कर नयी कार खरीदने की स्थिति में पहुंच गया था। लोगों के सपनों की लिस्ट में रेल लाईन जुड़ चुकी थी। राजा साहब के निधन के बाद हवाई पट्टी का उपयोग कार ड्रायविंग सीखने के लिये होने लगा था। गाॅल्फ कोर्स पहले ही कृषि विद्यालय के लिए दान में जा चुका था।
आकांक्षा पूरी होने में समय लगा। किन्तु दादाजी और पिताजी ने बुनियादी परिस्थितियां इतने आगे लाकर और मजबूत छोड़ी थीं कि पोते के सपने को नकारते जाना और न्यायोचित मांग को अनदेखा करना, किसी के लिए संभव नहीं रह गया था।
आखिरकार 15 अगस्त 2021 के दिन छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि सारंगढ़ एक ज़िला बनेगा। यदि जनभावना को मूर्तरूप देने वाला सक्षम और समर्पित नेतृत्व मिला तो एक दिन न केवल रेल आयेगी बल्कि सारंगढ़ को नियमित हवाई मार्ग में भी स्थान प्राप्त होगा।
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डाॅ. परिवेश मिश्रा
गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़ (छत्तीसगढ)
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