
ग्रामीण क्षेत्रों में चल रहे अधिकांष कार्यो में सूचना बोर्ड नही लगा है निर्माणकर्ता ठिकेदार से पूछने पर गोलमोल जवाब मिलता है और खबर प्रकाषित होने पर भोले भाले ग्रमीणों को डरा धमका कर मामले को लेदे के निपटाया जाता है इससे गांव में भय और आतंक का आलम है। सत्ता पक्ष के नेताओं की दबंगाई और ठिकेदारों से साठ-गाठ ने भी जन आवाज को दबाने का काम किया है। विकास खण्ड सारंगढ़ में एसे कई पंचायत है जहां करोड़ों रूपये के विकास कार्य हो रहे है और कई ग्राम पंचायत ऐसे भी है जहां लाख रूपये का भी काम नही हुआ है। ऐसा इसलिये ह,ै क्योंकि सरपंचों से कार्य स्वीकृत कराने के नाम पर सत्ता के दलाल मोटी कमिषन लेते है जो सरपंच आर्थिक रूप से सम्पन्न है वे पहले कमिषन देते है और काम लेते है इसमे गरीब तबके का सरपंच पिछे रह जाता है जिस कारण ग्राम पंचायत में विकास कार्य नही आ पाता।

सवाल शुरू होता है खुद से ‘क्या हमने कोई काम ले-दे कर करवाया है ?’ बस, देश में रिश्वत के स्तर और समाज में उसकी मान्यता का अंदाजा यहीं से लग जाएगा। चाय पानी, सुविधा शुल्क, कमिषन, घूस और न जाने कितने नामों से प्रचलित रिश्वत हमारी प्रणाली में घुन्न की तरह लगी और बढती चली जा रही है। न तो रिश्वत नयी बात है और न ही हमारे देष में इसका होना कोई अजूबा। बीते वर्षों में यहां इसका प्रचलन जिस तरह से बढा है और यह धारणा बनी है कि कोई काम बिना लिए - दिए नहीं होगा, वह चिंताजनक है। भ्रष्टाचार करने वाले हजार के नोटों की तरह बढ़ रहे हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले चार आने आठ आने की तरह गायब हो रहे हैं। रही सही कसर उचित समुचित कानूनों के अभाव ने पूरी कर दी है। इन बिगड़े हालात का कोई समाधान नजर नहीं आता। ‘रिश्वत लेते पकड़े जाने वाले, रिश्वत देकर छूट जाते हैं’- यह एक कड़वा सत्य है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें